मेरी सुबह होती है यूं ही
आंगन बुहारते गोबर से लीपते
रोटी-भात बनाते
कपड़े धोते
गाय को चारा खिलाते
बच्चे को दूध पिलाते
हर दिन दुलत्ती खाते
यूं ही होती है सुबह।
कल जब पड़ोस में देखा
सुबह भी हंसती है उसके आंगन में
नहीं बुहारना-लीपना पड़ता उठकर भिनसरे
नहीं पड़ती उसको दुलत्ती कभी
उसकी कोठी में होती है सुबह यूं ही
मेरी सुबह भी बीत ही जाती है रोज यूं ही।
वाह . अच्छी कविता. वर्ड वेरिफ़िकेशन हटाएं.
जवाब देंहटाएंmai samjha nahi sahab...ye word verification kya cheez hai...
जवाब देंहटाएं