नीहारिका झा पांडेय। तालियों की गड़गड़ाहट, शुद्ध हिन्दी में कविता पाठ, हिन्दी के भविष्य को लेकर लंबी-लंबी परिचर्चाएँ, हर वर्ष हिन्दी दिवस के दिन पूरे देश का लगभग यही माहौल रहता है। स्कूल-कॉलेजों में बच्चों के हाथों में लिखी तख्तियाँ मिल जाती हैं, जिस पर हिन्दी को सिरमौर भाषा साबित करने की पूरी जुगत होती है-'हिन्दी श्रेष्ठ है', 'हिन्दी को आगे लाएँ हम', 'हिन्दी देश का गौरव है' और न जाने कितने ऐसे ही संदेशों से स्कूल-कॉलेज अटे पड़े रहते हैं। देश में अब हिन्दी, हिन्दी अधिकारी के पदों को भरने और सरकारी स्कूलों की चहारदीवारी तक ही घुटकर रह गई।
विविधता वाले इस देश की सबसे बड़ी समस्या है- भाषायी एकता की। आजादी के इतने वर्षों बाद भी मिजोरम, नगालैड जैसे उत्तर-पूर्वी राज्य खुद को हिन्दी से नहीं जोड़ पाए हैं। वहाँ समय-समय पर हिन्दी विरोधी स्वर उठते रहते हैं।
विविधता वाले इस देश की सबसे बड़ी समस्या है- भाषायी एकता की। आजादी के इतने वर्षों बाद भी मिजोरम, नगालैड जैसे उत्तर-पूर्वी राज्य खुद को हिन्दी से नहीं जोड़ पाए हैं। वहाँ समय-समय पर हिन्दी विरोधी स्वर उठते रहते हैं। हम भले ही उनकी आवाज को अनसुना कर दें, लेकिन भाषा के स्तर पर आज भी देश एकमत नहीं है। उन्होंने कथित रूप से यह आवाज उठाई है कि- वे हिन्दी नहीं पढ़ना चाहते। अगर देखा जाए, तो यह विरोध निराधार भी नहीं। हिन्दी भाषी क्षेत्रों के साथ जिस तरह के दोयम दर्जे का व्यवहार होता है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता। आए दिन उन पर हमले होते हैं, कई राज्यों में उन्हें हिन्दी भाषी क्षेत्र का निवासी होने का दंश झेलना पड़ता है। अपने ही देश में उनसे प्रवासियों जैसा बर्ताव किया जाता है।
आज देश में हजारों हिन्दी अखबार छपते हैं, उनकी पहुँच भी करोड़ों लोगों तक है, लेकिन ये चाय की गुमटियों की शोभा बढ़ाते हैं या खोमचे वालों के काम आते हैं। ये मुट्ठीभर अँगरेजी पढ़ने और समझने वाले देश की दशा और दिशा तय करते हैं।
हिन्दी को कामकाज की भाषा बनाने की कितनी ही दलीलें क्यों न दी जाएँ, आज क्रीमीलेयर मानी जाने वाली नौकरियों में प्राथमिकता अँग्रेजी बोलने और जानने वालों को दी जाती है। उन सरकारी स्कूलों के छात्रों को नहीं, जहाँ उनकी किताबों से लेकर बातचीत का माध्यम भी हिन्दी हो। उनकी आँखों में भी सपने दमकते हैं, लेकिन उन आँखों को हक नहीं होता उन्हें साकार करने का।
आज देश में हजारों हिन्दी अखबार छपते हैं, उनकी पहुँच भी करोड़ों लोगों तक है, लेकिन ये चाय की गुमटियों की शोभा बढ़ाते हैं या खोमचे वालों के काम आते हैं। ये मुट्ठीभर अँगरेजी पढ़ने और समझने वाले देश की दशा और दिशा तय करते हैं। मैनेजमेंट की डिग्री चाहिए या मेडिकल की, कानून की पढ़ाई करनी हो या फैशन की दुनिया में चमकना हो अँगरेजी की बैसाखी के बिना आप एक कदम नहीं चल सकते। कई कोर्सों की पहली शर्त ही अँगरेजी होती है। भले ही देश के हमारे प्रतिनिधि देश के बाहर हिन्दी में भाषण देते हों, लेकिन देश के अंदर हिन्दी आज भी अपनी पहचान तलाश रही है। ऐसे में हिन्दी दिवस का औचित्य बेमानी जान पड़ता है।
**वेबदुनिया पोर्टल में प्रकाशित नीहारिका झा पांडेय का लेख, वहीं से साभार
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें