शनिवार, 17 जुलाई 2010

अपशब्दों का कौशल

इन दिनों भारतीय राजनीति बड़े ही रोचक मोड़ पर है। सारे के सारे नेता बेलगाम होकर जहां तहां अपने भाषा ज्ञान के कौशल का आलोक बिखेर रहे हैं। मजे की बात यह है कि इसमें उन सभी स्यवंभू महान टाइप की पार्टियों के नेता शामिल हैं, जो खुद को संस्कारित कहते थकती नहीं हैं। एक राष्ट्रीय दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुत्ता, दामाद, औरंगजेब की औलाद और न जाने किन किन शब्दों में प्रयोग अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए कर रहे हैं। वहीं दूसरे भी कम नहीं हैं, जो उन्हें औकात दिखा रहे हैं और उनसे उनके पिता के बारे में जानकारी पूछ रहे हैं।

ये हाल हैं हमारे लोकतांत्रिक देश भारत के। ये वही नेता हैं जो खुद को जनप्रतिनिधि मानते हैं। ऐसे जनप्रतिनिधि जिनका जनता से कोई सरोकार नहीं है। जो एयरकंडीशन कमरों में बैठकर जनता के हाल पर मंथन करते हैं और देश की दिशा तय करते हैं। वो नेता जो हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर से जनता का हाल जानते हैं और फिर अपना फैसला थोप देते हैं।

रही बात इनके स्तर की तो वो आए दिन हम सभी देखते सुनते रहते हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में तो ये किसी से पीछे नहीं रहते हैं। छीछालेदर की हद तो कोई इनसे जाने।

वो नेता जो मौका लगते ही पाला बदलने में देर नहीं करते हैं। इसे आप मेरे मन की व्यथा कहें या देश की दुर्दशा पर सच तो यही है। नेता वाकई जनता को मूर्ख ही समझते हैं। तभी तो जब जो मन में आया कह दिया और प्रतिकूल परिस्थितियों में यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि उन्होंने तो ऐसा कहा ही नहीं, या इन्हें यह कहते हुए भी सुना जा सकता है कि उनके बयान का गलत अर्थ लगाया गया है। लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चलाई जा रही है।

देश के हाल से तो आप सभी अच्छी तरह से वाकिफ हैं। एक तरफ झारखंड जैसा राज्य है, जहां राजनीतिक स्थिरता नाम की कोई चिडिया दूर दूर तक नहीं दिख रही है, तो दूसरी ओर तेजी से पांव पसारता नक्सलवाद है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति का खामियाजा भुगत रहे हैं। आए दिन सीआरपीएफ और पुलिस के जवान काल के गाल में समा रहे हैं, लेकिन सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंग रही है। अभी तक यह तय नहीं किया जा सका है कि आखिर क्या करें। कुर्सी के लिए जितनी कुरबानियां उतनी कम।

स्वार्थ सिद्धि के लिए तो देश को बेचने में भी ये लोग पीछे नहीं हटेंगे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें