गुरुवार, 22 जुलाई 2010

मगर सेफ पैसेज देने का हक किसे है?

आखिरकार मंत्री समूह ने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए ‘इंसाफ’ कर दिया। लेकिन कई पहलुओं को जानबूझकर अनछुआ भी छोड़ दिया गया है। इस त्रासदी के सबसे अहम पहलुओं में से एक है यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन चेअरमैन वॉरेन एंडरसन का ‘सेफ पैसेज’ (बिना कानूनी प्रक्रिया के सुरक्षित जाने देना)।

तत्कालीन विदेश सचिव एमके रसगोत्रा ने हाल ही में खुलासा किया कि भारत सरकार ने एंडरसन का ‘सेफ पैसेज’ करवाया था। रसगोत्रा ने अटकलें लगाते हुए कहा कि ‘संभवत:’ इसकी अनुमति तत्कालीन गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पूर्व सहमति से दी होगी। उन्होंने साथ ही यह भी जोड़ दिया कि एंडरसन को जाने देना ‘देशहित’ में था, क्योंकि उसे परेशान करने पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार समुदाय हमसे किनारा कर लेता और इससे भारत में विदेशी पूंजी निवेश प्रभावित होता।

रसगोत्रा के इस बयान से कई सवाल खड़े होते हैं। सबसे पहली बात तो यह कि जिस संदर्भ में ‘सेफ पैसेज’ का उल्लेख किया गया है, उसमें इसके क्या मायने हैं? क्या इसमें कानूनी प्रक्रियाओं से बचाव भी शामिल है? क्या राष्ट्रपति, प्रधान न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय की किसी बेंच को भी अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति को कानूनी प्रक्रियाओं से मुक्त कर दे? जिस देश में कानून सर्वोपरि है, वहां यह अधिकार किसे है? विदेश सचिव को? गृह मंत्री को? या प्रधानमंत्री को? क्या एंडरसन के मामले में सीआरपीसी को भी मुल्तवी कर दिया गया था?

नक्सल समस्या सहित कानून व्यवस्था से जुड़े हर मसले पर भारत सरकार द्वारा कहा जाता है कि यह राज्य से जुड़ा मामला है। फिर एंडरसन के मामले में न्यायिक प्रक्रियाओं को कैसे भुला दिया गया? यह अक्षम्य है। कानून तोड़ने के लिए देशहित का हवाला नहीं दिया जा सकता। हैरानी है कि प्रशासन में इतने ऊंचे ओहदों पर रहा कोई शख्स कानून के प्रति ऐसा गैरजिम्मेदाराना रुख अख्तियार कर सकता है।

सरकार को वॉरेन एंडरसन को ‘सेफ पैसेज’ देने का अधिकार ही नहीं था। यह ऐसा ही है जैसे किसी भोंदू खरीदार को हावड़ा ब्रिज बेचना। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि तत्कालीन गृह मंत्री बेहद चौकस व्यक्ति थे और इस मामले की सभी गतिविधियां गृह मंत्रालय, पीएमओ और यकीनन विदेश मंत्रालय के संबंधित दस्तावेजों या फाइलों में दर्ज होंगी। इस पर बहस की जा सकती है कि अमेरिकी अनुरोध की कितनी पड़ताल की गई थी। एमएफ हुसैन की कतर से भारत वापसी के सुझावों की इस मामले से तुलना की जा रही है। लेकिन यहां यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हुसैन को भारत की अदालतों में लंबित आरोपों से कोई कानूनी राहत नहीं दी गई है।

हमारे यहां कानून का किस तरह मखौल बनाया जाता है, इसका एक और उदाहरण श्रीलंकाई राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान देखने को मिला। राष्ट्रपति के साथ आए एक मंत्री भारतीय न्याय प्रक्रिया के तहत कानूनी रूप से दोषी ठहराए जा चुके हैं। मीडिया द्वारा इस तथ्य को प्रकाश में लाने के बावजूद मंत्री महोदय की आवभगत जारी रही। उनकी औपचारिक गिरफ्तारी तक के प्रयास नहीं किए गए। क्या अमेरिका में ऐसी किसी घटना की कल्पना की जा सकती है? क्या कोई भारतीय, चाहे वह कितने ही ऊंचे ओहदे पर क्यों न हो, अमेरिकी कानून द्वारा दोषी पाए जाने पर उस देश में सम्मान के साथ प्रवेश पा सकता है? लगता है आजादी के 63 सालों बाद भी हम कानून का सम्मान करना नहीं सीखे हैं। जब देश के कर्ताधर्ता ही ऐसा करेंगे तो फिर आम आदमी से तो यह अपेक्षा रखना बेकार ही है कि वह कानून की इज्जत करेगा।

लेखकः एसआर सुब्रमण्यम (दैनिक भास्कर अखबार, नई दिल्ली से साभार)

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