बुधवार, 15 अप्रैल 2015

वोट के लिए तो जनहित किया ही जा सकता है

गूगल सर्च से साभार
देश में एक दशक तक एक ऐसी सरकार का राज रहा, जिसने योजनाएं तो खूब बनाईं, पर अमल तो चुनिंदा पर ही हो सका। हां, घोटाले जरूर एक से बढ़कर एक हुए। लाखों और करोड़ों लूटना तो अब पुरानी और शर्मनाक बात बन चुकी है। जब तक आंकड़ा 100 करोड़ से ऊपर न हो, इज्‍जत ही नहीं बनती है। सरकार बदली तो उम्‍मीद जगी कि शायद अब व्‍यवस्‍थाएं बदलें। लेकिन यह भी कोरी कल्‍पना साबित होती जा रही हैं।

भ्रष्‍टाचार अब भी बेलगाम है, हां यह कह सकते हैं कि अपनी पीठ थपथपाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। विश्‍व की सबसे तेज उभरती हुई अर्थव्‍यवस्‍था की एक सचाई यह भी है कि यहां अब भी करोड़ों लोग गरीब और भूखे हैं। अशिक्षित और बेरोजगार हैं। जिनके पास पेट भरने को नहीं है। उनको सरकारों से मतलब नहीं होता है, उन्‍हें तो दो वक्‍त की रोटी की चिंता होती है।

बड़े बुजुर्गों में कहा है, 'भूखे भजन न होई गोपाला'। गलत नही है। मौसम की मार ने किसानों के सामने मुसीबत खड़ी कर दी है। देश के कई राज्‍यों में हजारों एकड़ फसल खेत में ही नष्‍ट हो गई है। न जाने कितने किसानों ने आत्‍महत्‍या कर ली है। सरकारों ने उनके जख्‍मों पर राहत का मरहम लगाने के स्‍थान पर महज कुछ सौ रुपए या कुछ हजार रुपए का मुआवजा रूपी झुनझुना थमा दिया है। एक राज्‍य में तो जिला कलेक्‍टर ने किसान की आत्‍महत्‍या का मजाक ही बना दिया।

अजब-गजब मध्‍यप्रदेश की तो बात ही क्‍या है। यहां की राजधानी भोपाल में वीआईपी क्षेत्रों में रहने वालों के लिए विशेष वाटर ट्रीटमेंट प्‍लांट लगाया गया है, ताकि मंत्री और नौकरशाह आरओ क्‍वालिटी का पानी नल से ही पी सकें। लेकिन उन लोगों की सुध कोई नहीं ले रहा है जो नदी में खड़े रहकर आंदोलन कर रहे हैं। एक तरफ खबरें छपती हैं कि राज्‍य का खजाना सस्‍ता हो चुका है और तनख्‍वाहों के अलावा कोई और भुगतान नहीं किया जा सकता है। तो दूसरी ओर रोज नई-नई घोषणाएं हो रही हैं। मजे की बात यह है कि घोषणाएं करने और पूरी होने का अनुपात अपने आप में एक शोध का विषय बन सकता है।

भ्रष्‍टाचार में तो सब एक से बढ़कर एक हैं। यदि फलाने ने ढिमाके पर भ्रष्‍टाचार के आरोप लगाए तो ढिमाके ने उस पर कार्रवाई करने के बजाय फलाने के पाप गिनाना शुरू कर दिया। यानी लब्‍बोलुआब यह कि तुम्‍हारी भी जय-जय और हमारी भी जय-जय।

सारा का सारा ध्‍यान केवल इस ओर है कि किस धर्म को कोसें और किसे अच्‍छा कहें। केंद्र में सत्‍ता परिवर्तन होते ही बचनवीर बुलंद हो गए हैं। आए दिन घर वापसी, लव जेहाद और नसबंदी जैसी बातें होने लगी हैं। क्‍या ऐसा करने से गरीब का पेट भर जाएगा। यदि कोई ईसाई अपना धर्म बदलकर हिंदू हो जाएगा, तो उसे रोजगार, रोटी और छत नसीब होगी। मेरी छोटी बुद्धि तो कहती है कि ऐसा शायद नहीं हो सकेगा।

हालांकि देवतातुल्‍य नेताओं की दृष्टि में ऐसा संभव हो सकता है, जो मेरी समझ में न आ रहा हो। लेकिन क्‍या करूं। आम इंसान जो ठहरा।

मेरे विचार से (शायद अधिकांश लोग इससे सहमत न हों) राजनीति को धर्म या पार्टी केंद्रित न होकर, जनकेंद्रित होना चाहिए। योजनाएं केवल बनाई न जाएं, उनको अमल में लाना भी सुनिश्चित किया जाए। शिक्षा की बात भर न की जाए, वाकई देश के अंतिम नागरिक तक उसे उपलब्‍ध कराया जाए। स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के लिए घोषणाएं भर न की जाएं, बल्कि उसे ऐसा बनाया जाए कि लोगों को सचमुच लाभ मिल सके।

चलिए एक विकल्‍प और बताता हूं। जनहित को यह सोचकर मत करिए कि इससे जनता का भला होगा। क्‍योंकि ऐसा सोचना भारत की राजनीतिज्ञों को शोभा नहीं देता है शायद। नेतागण यह सोचकर यह सब करें कि इससे उनका वोट बैंक मजबूत होगा। हां, शायद इस लालच में तो जनहित किया ही जा सकता है। बाकि देश और अभागी जनता का भाग्‍य।

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