बुधवार, 29 जुलाई 2009

फिर भी कविता लिख लेता हूँ...

सुबह से लेकर रात तक... भागती रहती है जिंदगी ..
कभी इस खबर.. कभी उस खबर...
इनके बीच मै बेखबर सा होकर घूमता रहता हूँ...
बदबूदार राजनीति... नालियों में सड़ती नवजात बेटियाँ.. सेलेब्रेटियों के पाखंड..

चौराहे पर एक कट चाय पीकर... फिर भी कविता लिख लेता हूँ...

निर्मोही सा... अब ये मन... नहीं पसीजता किसी घटना से...
मोहल्ले के कुत्ते की मौत पर.... मै कभी बहुत रोया था....
अब नर संहारो से भी कोई सरोकार नहीं ....

फिर भी देर रात घर लौटते वक़्त..
मै मुंडेर पर ..चिडियों का पानी भर देता हूँ...

परिभाषा काल की मुझे नहीं मालूम.. जाने कब क्या हो...
कोई मिला तो हंस लिए... न मिला तो चल दिए...
पदचाप अपने ...निशब्द भी मिले... तो यू ही कुछ गुनगुना लिया...
षडयंत्र, राजनीति, विरोध, प्रदर्शन... जीवन के अब सामान्य पहलू से हो चले...

बचपन...की याद बहुत आती है... खेतो की मिट्टी में गुजरा था बचपन..
अब धमाको में उड़े.. बच्चो का खून...
अपनी खबर देखते-पढ़ते... करवट बदलते रात काट देता हूँ मैं
मैं फिर भी कविता लिख लेता हूँ

प्रिय मित्र अंकित श्रीवास्तव की यह रचना पढ़िए। अंकित दैनिक भास्कर समाचार समूह की भोपाल कॉरपोरेट एडिटोरियल डेस्क पर कार्यरत हैं।

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